सती का आत्मदाह 

          एक बार सम्पूर्ण प्रजापतियों ने यज्ञ किया। उस यज्ञ में सभी बड़े-बड़े देवता, ऋषि, महर्षि आदि पधारे। प्रजापति दक्ष भी वहाँ पर आये। उनके तेज से सम्पूर्ण यज्ञ मण्डप सूर्य के समान जगमगाने लगा। उनके स्वागत के लिये समस्त प्रजापति, ऋषि-महर्षि, देवता आदि उठ कर खड़े हो गये। केवल ब्रह्मा जी और शंकर जी अपने स्थान पर बैठे रहे। शंकर जी ने उचित व्यवहार ही किया था क्योंकि एक देवता होने के नाते वे एक प्रजापति का खड़े होकर स्वागत नहीं कर सकते थे।
किन्तु दक्ष प्रजापति शिव जी के श्वसुर थे, उन्हें शिव जी का खड़े होकर स्वागत न करना अच्छा नहीं लगा। शंकर जी का ऐसा व्यवहार देख कर दक्ष प्रजापति को बड़ा क्रोध आया और वे बोले, "हे देवताओं तथा ऋषि महर्षियों! मेरी बात सुनो! इस शंकर ने लोक मर्यादा तथा शिष्टाचार का उल्लंघन किया है। यह निर्लज्ज शंकर अहंकारवश सब लोकपालों की कीर्ति को मिट्टी में मिला रहा है। इसने घमण्ड में आकर सत्पुरुषों के आचरण को भी धूल में मिला दिया है। मैंने भोला शंकर सत्पुरुष समझ कर अपनी सुन्दर कन्या सती का विवाह इससे कर दिया। इस नाते यह मेरे पुत्र के समान है। इसको उठ कर मेरा सम्मान करना चाहिये था। मझे प्रणाम करना चाहिये था। किन्तु इसने ऐसा नहीं किया। अपने पिता ब्रह्मा जी के कहने पर मेरे इच्छा न होते हुये भी मैंने इस अपवित्र, भ्रष्ट कर्म करने वाले, घमण्डी, धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, भूत-प्रेत के साथी और नंग-धड़ंग पागल को अपनी कन्या दे दी। यह शरीर में भस्म लगाता है, कंठ में नर मुण्डों की माला पहनता है। यह तो नाम मात्र का शिव है। यह अमंगल रूप है। यह बड़ा मतवाला और तमोगुणी है।
सभी देवताओं, ऋषि-महर्षियों आदि के समक्ष दक्ष प्रजापति ने शंकर जी का अपमान किया और शंकर जी चुपचाप बैठे हुये निरुत्तर भाव से सुनते रहे। शंकर जी के इस प्रकार चुप रहने से दक्ष प्रजापति का क्रोध और भी बढ़ गया और वे महादेव जी को शाप देने के लिये उद्यत हो गये। वहाँ पर उपस्थित सभी देवताओं तथा ऋषि-महर्षियों ने दक्ष प्रजापति को शाप देने से मना किया किन्तु क्रोध और अहंकार के वशीभूत दक्ष प्रजापति ने किसी की भी न सुनी और शाप दे दिया कि इस अशिव को इन्द्र, उपेन्द्र आदि बड़े-बड़े देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले।
जब महादेव जी के गण नन्दीश्वर को दक्ष के शाप के विषय में पता चला तो वे बोले, "जो नीच अभिमानवश भगवान शंकर से बैर करता है उस दक्ष को मैं शाप देता हूँ कि वह तत्वज्ञान से हीन हो जावे। यह दक्ष यज्ञादि अनुष्ठान करता रहता है किन्तु फिर भी पशु के समान कार्य करता है इसलिये यह स्त्री लम्पट हो जावे और इसका मुख बकरे के समान हो जावे। जो इसके अनुयायी हों और शिव जी से बैर रखते हों वे जन्म मरण के चक्कर में पड़ते रहें, भक्षाभक्ष अन्न ग्रहण करें और संसार में भीख माँगते फिरें।"
नन्दीश्वर के इस शाप को सुन कर दक्ष प्रजापति के हितचिन्तक भृगु ऋषि ने शाप दिया, "शिव भक्त शास्त्रों के विरुद्ध कर्म करने वाले तथा पाखण्डी हों और उन्हें सुरा अतिप्रिय होवे।"
इन समस्त बातों से खिन्न होकर भगवान शंकर अपने अनुचरों के साथ वहाँ से उठ कर कैलाश पर्वत चले गये। दक्ष प्रजापति एवं शंकर जी में परस्पर बैर बढ़ता गया। कुछ काल पश्चात् ब्रह्मा जी ने दक्ष को सभी प्रजापतियों का स्वामी बना दिया। जिससे दक्ष का गर्व और भी बढ़ गया। उसने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। दक्ष ने उस यज्ञ में सभी देवर्षि, ब्रह्मर्षि, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों, देवताओं आदि को निमन्त्रित किया। केवल शंकर जी को बुलावा नहीं भेजा गया। सभी देवता पितर आदि ने अपनी-अपनी गृहणियों के सहित अपने-अपने विमानों में बैठ कर यज्ञ में प्रस्थान किया। आकाश में विमानों को जाते हुये देखकर दक्ष प्रजापति की पुत्री सती ने महादेव जी से कहा, "हे देवाधिदेव! मैंने सुना है कि मेरे पिता ने एक बड़े भारी यज्ञ का आयोजन किया है। मुझे प्रतीत होता है कि ये देवता, यज्ञ, गन्धर्व आदि अपनी अपनी पत्नियों सहित सज धज कर तथा विमानों में बैठ कर वहीं के लिये प्रस्थान कर रहे हैं। वहाँ पर मेरी बहनें भी अपने अपने पतियों के साथ अवश्य पधारी होंगी। मेरी इच्छा है कि मैं भी आपके साथ यज्ञ में जा कर अपने पिता के यज्ञ की शोभा बढ़ाऊँ।"
महादेव जी बोले, "हे प्रिये! तुमने बहुत अच्छी बात कही है। तुम्हारे पिता ने तुम्हारी सभी बहनों को निमन्त्रित किया है किन्तु बैर भाव के कारण मेरे साथ तुम्हें भी न्यौता नहीं दिया। ऐसी स्थिति में वहाँ जाना उचित नहीं है।" इस पर सती जी बोलीं, "हे प्राणनाथ! पति, गुरु, माता-पिता तथा इष्ट मित्रों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जाया जा सकता है।" सती जी के ऐसा कहने पर शिव जी ने हँस कर कहा, "हे प्रिये! तुम्हारा कथन सत्य है कि पति, गुरु, माता-पिता तथा इष्ट मित्रों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जाया जा सकता है। किन्तु यह तभी हो सकता है जब उनसे कोई द्वेष भाव न हो। तुम्हारे पिता को अति अभिमान है इसलिये वहाँ जाने पर वे तुम्हारा निरादर कर सकते हैं।" सती के मन में अपने पिता के यहाँ जाने की प्रबल इच्छा थी इसलिये उन्हें शिव जी की बातों से वे अति उदास हो गईं। सती की अपने पिता दक्ष प्रजापति के यहाँ जाने की प्रबल इच्छा को देख कर शंकर जी ने विचार किया कि यदि सती को न जाने दिया जायेगा तो यह प्राण त्याग देंगी और जाने पर भी प्राण त्यागने की सम्भावना है। अतः शंकर जी ने इसे काल की गति मानकर और होनहार को प्रबल समझकर अपने हजारों सेवक तथा वाहनों समेत सती को दक्ष के यहाँ भेज दिया।
कुछ ही काल में सती अपने पिता के यज्ञस्थल में पहुँच गईं। वहाँ पर वेदज्ञ ब्राह्मण उच्च स्वरों में वेद की ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। यज्ञस्थल की शोभा अद्वितीय थी। सती को देख कर उनकी माता और बहनें प्रसन्न हुईं किन्तु दक्ष प्रजापति ने सती को देखते ही कुदृष्टि करके मुँह फेर लिया। सती अपने इस अपमान को सह न सकीं। जब सती ने यज्ञ मण्डप में जाकर यह देखा कि उनके पति महादेव जी को यज्ञ में कोई भाग नहीं दिया गया है ति उन्हें अति क्रोध आया। दक्ष के इस अभिमान तथा शिव जी के के साथ किये गये द्वेष भाव को वे और अधिक सह न सकीं। वे यज्ञ में अपने पिता के पास आकर बोलीं, "हे पिता! इस संसार में भगवान शंकर से बढ़कर कोई देवता नहीं है। इसीलिये उन्हें देवाधिदेव महादेव कहते हैं। वे मेरे पति हैं और आपने समस्त देवताओं, ऋषि-महर्षियों आदि के समक्ष यज्ञ में उनका भाग न देकर उनकी निन्दा की है। अपने स्वामी की निन्दा देख-सुन कर मैं कदापि जीवित नहीं रह सकती। अब मैं आपसे उत्पन्न इस शरीर को त्याग दूँगी क्योंकि आप के रक्त से बना यह शरीर अपवित्र है।"
इतना कह कर सती मौन हो उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ गईं। आचमन से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करके पीत वस्त्र से शरीर को ढँक लिया। नेत्र बन्द करके प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान वायु को एक करके नाभिचक्र में स्थापित किया। तत्पश्चात् उदान वायु को नाभिचक्र से ऊपर ले जाकर शनैः शनैः हृदयचक्र में बुद्धि के साथ स्थित किया। फिर उदान वायु को ऊपर उठाकर कण्ठ मार्ग से भृकुटियों के मध्य स्थापित कर लिया। इसके बाद भगवान शंकर के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योग मार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया। सती के इस प्रकार देह त्याग पर सम्पूर्ण उपस्थित देवता, ऋषि-महर्षि आदि सभी ने दक्ष को बुरा भला कहा। शंकर जी का द्रोही होने के कारण उसका अपयश होने लगा।
सती के साथ आये हुये हुये शिव जी के गण यज्ञ का विध्वंश करने लगे। यज्ञ का विध्वंश देख कर भृगु ऋषि ने उस यज्ञ की रक्षा की। जब भगवान शंकर जी को नारद जी से सती के भस्म होने तथा उनके सेवकों को दक्ष के यज्ञ से भगा देने की सूचना मिली तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अति क्रोधित होकर अपनी एक जटा को, जो अग्नि तथा विद्युत के समान तेजोमय थी, नोंच डाला और उसे पृथ्वी पर पटका। उससे तत्क्षण एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसकी सहस्त्र भुजाएँ थीं, श्याम रंग था, दाढ़ें विकराल एवं तीक्ष्ण थीं तथा अग्नि के समान जलते तीन नेत्र थे। उसकी लाल लाल जटायें अग्नि के समान थीं, कण्ठ में मुण्ड माला और हाथों में शस्त्रास्त्र थे। उसने भगवान भूतनाथ से पूछा, "हे देवाधिदेव! मुझे क्या आज्ञा है?" भगवान शंकर ने कहा, "हे वीरभद्र! तू मेरे अंश से प्रकट हुआ है इसलिये मेरे सम्पूर्ण पार्षदों का अधिपति होकर शीघ्र ही दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जा और उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दे।
वीरभद्र तुरन्त महादेव जी की परिक्रमा करके दक्ष प्रजापति के यज्ञ की ओर हाथ में त्रिशूल ले कर दौड़े। उनके वेग से पृथ्वी काँपने लगी और उनके सिंहनाद से सारा आकाश गूँज उठा। वे साक्षात् संहारकारी रुद्र थे। उनके पीछे बहुत से सेवक अनेक प्रकार अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़ पड़े। कुछ ही क्षणों में वीरभद्र ने अपने अनुचरों सहित दक्ष प्रजापति के यज्ञ मण्डप को चारों ओर से घेर लिया। उनकी भयंकरता से दक्ष प्रजापति भी भयभीत हो गये। भगवान रुद्र के सेवकों ने आते ही यज्ञ मण्डप को उखाड़ना आरम्भ कर दिया। किसी ने खम्भे उखाड़े, किसी ने कलश तोड़े, किसी ने यज्ञ की अग्नि में रुधिर की वर्षा कर दी, किसी ने यज्ञशाला नष्ट कर दी तो किसी ने सभा मण्डप और अतिथि मण्डप का नाश कर डाला। वीरभद्र और उनके अनुचरों ने भयंकर विनाश लीला किया। वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को बाँध लिया। वहाँ आये हुये समस्त ऋषि-महर्षि, देवतागण आदि भाग निकले किन्तु भृगु ऋषि हवन करते रहे। इस पर वीरभद्र ने भृगु ऋषि के नेत्र निकाल लिये और दक्ष का सिर काट कर यज्ञ की अग्नि में डाल दिया। दक्ष प्रजापति के यज्ञ का नाश हो गया।
इस घटना से भयभीत होकर सारे देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जाकर महादेव जी के क्रोध को शान्त करने का अनुरोध किया। उनके इस अनुरोध पर ब्रह्मा जी समस्त देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर गये और शिव जी की स्तुति करके कहा, "हे शम्भो! आप यज्ञ-पुरुष हैं इसलिये आपको यज्ञ का भाग पाने का पूर्ण अधिकार है, किन्तु इस दुर्बुद्धि दक्ष ने आपको यज्ञ-भाग नहीं दिया था इसी कारण से उसके यज्ञ का नाश हुआ। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस मूर्ख दक्ष को क्षमा करके इसका कटा हुआ सिर जोड़ दीजिये तथा इस अपूर्ण यज्ञ को फिर से पूर्ण करने अनुमति दीजिये। भृगु ऋषि को भी क्षमादान करके उनके नेत्र उन्हें पुनः प्रदान करने की कृपा कीजिये।"
ब्रह्मा जी के इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना करने पर महादेव जी ने शान्त होकर कहा, "हे जगत् के कर्ता ब्रह्मा जी! मैं न तो दक्ष जैसे दुर्बुद्धि और अज्ञानी पुरुषों के दोषों की ओर कभी ध्यान नहीं देता हूँ और न कभी उनकी चर्चा ही करता हूँ। केवल मैंने उसे उपदेश के रूप में यह नाम मात्र का दण्ड दे दिया है जिससे उसका अहंकार नष्ट हो जावे। शापवश उसे उसका सिर पुनः प्राप्त नहीं हो सकता अतः उसके धड़ को बकरे के सिर के साथ जोड़ दिया जावे। भृगु ऋषि को मित्र देवता के नेत्र मैंने प्रदान किया। दक्ष के इस यज्ञ को पूर्ण करने की अनुमति भी मैं प्रदान करता हूँ।"
शिव जी के ऐसे वचन सुन कर ब्रह्मा जी सहित समस्त देवता प्रसन्न हुये और उन्हें दक्ष के यज्ञ के लिये निमन्त्रित किया। इस प्रकार शिव जी की उपस्थिति यज्ञ पूर्ण हुआ।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

gupt navratri magh january 2023 / गुप्त नवरात्रि माघ जनवरी २०२३

How to do Bindu Tratak? To install Bindu Tratak. in English

Thought communication / Vichar Sampreshan / telepathy.